सियासत में रिश्ते वक्त और जरुरत तय करते हैं…ये सियासत का ही मिजाज है कि तमाम तल्खी के बाद गठबंधन चलते रहते हैं….बातों से बात निकलती है…जो दूर तलक जाती है…एक बयान के कई मायने होते हैं…कहने वाला कह देता है…बूझने वाला समझ जाता है…एनडीए का कुनबा बढ़ रहा है..दूसरे दलों के बागी बीजेपी में शरण पा रहे हैं…पर बीजेपी के पुराने साथी नाराज भी हैं..जो नाराज नहीं हैं वो भी दिक्कतें बढ़ाने में लगे हैं…आडवाणी कांड का नया अध्याय बीजेपी के लिए किसी फजीहत से कम नहीं था…बची-खुची कसर सामना के जरिए शिवसेना ने पूरी कर दी…उद्धव ने बीजेपी को ताला और आडवाणी को चाबी का तमगा दिया है…जेटली,मोदी,सुषमा को मनपंसद सीटे मिली..आडवाणी को समझौता करना पड़ा…आडवाणी को दर्द को उद्धव ने शब्द में पिरोया…सामना का संपादकीय बीजेपी को समर्पित था…सबक मोदी के लिए था…और नसीहत पूरे एनडीए के लिए थी..उधर बीजेपी हालात को संभालने और सहयोगियों के तानों को नजरअंदाज करने में लगी है..ये बीजेपी की मजबूरी..दिक्कत और जरुरत है…सहयोगियों को नाराज करना नुकसान का सौदा है..शिवसेना मान जाएगी..क्योंकि उसे भी बीजेपी की जरुरत है सख्त जरुरत…पर शिवसेना-बीजेपी का सुरताल कब ठीक होगा कहना मुश्किल है….




