
ये सियासत हैं…सौ टका खालिस सियासत…जिसमें शिकार कोई भी हो सकता है…अपने पराए होते हैं…बदलते वक्त के साथ समीकरण बदलते हैं…जरुरतें बदलती हैं…और बदलती जाती है तस्वीरें…. लौहपुरूष बेबस नजर आ रहे हैं… …बीजेपी के कृष्ण को गीता का सार आत्मसात करना पड़ा रहा है…सखा, शिष्य, अपने..बेगाने हो गए…अर्जुन ने द्रोणाचार्य पर कमान तान दी है…पितामह परेशान हैं..और गांधीनगर से विस्थापित होना पड़ रहा है…जिन्हें राजनीति का पाठ पढ़ाया वहीं आज राजनीति का सबक दे रहे हैं…शायद इसी को कहते हैं गुरू का गुड़ ही रह जाना और चेले का शक्कर हो जाना…मोदी को अभयदान दिलाने वाले आडवाणी मोदी से मतभेद का…पार्टी में गिरती साख का…और खत्म ना होने वाली महत्वाकांक्षा का खामियाजा भुगत रहे हैं…जिस पार्टी को खून-पसीने से सींचा…उसी बीजेपी के पितामह आडवाणी हाशिए पर हैं…भोपाल के रास्ते दिल्ली आना मजबूरी भी है और जरुरत भी…मजबूरी इसलिए क्योंकि गांधीनगर में अब मोदी और मोदी समर्थकों का साथ मिलना जरा मुश्किल हैं…और जरुरत इसलिए ताकि सियासत में संभावनाएं बनी रहे….मोदी का उदयकाल आडवाणी के अस्ताचल का संकेत था….आडवाणी भांप चुके थे पर कुछ कर पाने की हैसियत में नहीं थे….मोदी बढ़ते गए ..आडवाणी सिमटते गए….मतभेद की गहराई की थाह लीजिए आडवाणी भोपाल के लिए अड़े हैं..और मोदी ने एक बार भी सार्वजनिक तौर आडवाणी को गांधीनगर के लिए आमंत्रण नहीं भेजा..आडवाणी का भोपाल प्रस्थान कई मायनों में अहम हैं…ये सच सियासत का हैं…जहां सामर्थ को सलाम को किया जाता है…रिश्ते नाम के होते हैं जो हितों के धागों से बुने जाते हैं…शायद आडवाणी समझ गए हैं..और आडवाणी को समझना ही होगा



